Thursday, February 10, 2011

झुरियाँ

जब कभी देखती हूँ चेहरा आईना में
न चाहते हुए भी मेरी निगाहें बार बार
मेरी झुरीयों पर आकर स्थिर हो जाती है
बचपन में चहरे पर कोमलता और मासूमियत थी
जवानी में कुछ कर दिखाने का जोश और जूनून
अब बस एक गहरा ठहराब और ये झुरियाँ
कितना कुछ कहती हैं ये झुरियाँ

मेरे जीवन संघर्षो की पूरी दास्तान इनमे छिपी है
कभी गिरते गिरते संभली हूँ मैं
कभी गिरकर चोट खाकर खड़ी हुई मैं
कभी तपती धूप में,
स्कूल के लिए मीलों चली हूँ मैं
कभी खुद को तपाया है उस धूप में
नौकरी न मिलने पर
कभी बारिश में ठिठुरी हूँ मैं
कभी एक रूपये के लिए तरसी हूँ मैं
कभी इस चहरे के सोंद्य्रे पर,
दिवाने हुए हैं लोग कई बार
कभी इसके दाग धब्बे देखकर
मुहँ मोड़कर चले गए कई लोग

ये झुरियाँ सबूत हैं
बचपन के गुजर जाने का
जवानी में खाई ठोकरों का
कुछ साल में आने वाले
बुडापे का

समझ नहीं आता
हर कोई जवान क्यों बना रहना चाहता है
इन झुरीयों से इतना क्यों घबराता है
हर रोज नए नुस्के बेचे जाते हैं बाज़ार में,
कैसे रहे चेहरा जवान बुड़ापे में
किसी तरह से टल जाए इन झुरीयों का आना
कुछ दिन, कुछ महीनों या फिर कुछ सालों के लिए
पर समय के पाइये को कैसे रोकेगे दोस्तों
बाहर बदल भी लो तो क्या
अन्दर के जगत को कैसे बदलोगे

हो सकता है मिल जाय कोई
इस चहरे पर दुनिया लुटाने वाला
तुम्हारी खूबसूरत जुल्फों पर
ग़ज़लें सुनाने वाला
चमकते नेनों में डूबने वाला

पर कभी तो आयगा वो दिन
जब सब कुछ छूट जायगा प्यारे
बुडापा चोखट पर खड़ा दस्तक देगा
उस दिन क्या दोगे जवाब
लौटा दो मेरी जवानी के दिन
ले जाओ ये लाठी हाथ की मेरी
होने दो सीधा खड़ा मुझे

कैसा समाज है ये
चेहरे पे लटकता है
जुल्फों में अटकता है
गंगा में पाप धोता है
पुन कमाने के लिए काशी जाता है
जब मरने का समय आय
तो राम राम जपता है
सारा जीवन व्यर्थ गवाया
ये सोच रोता रोता
दुनिया से विदा लेता है
मरना जीवन का अंत सत् है
जो उसने समेटा सब रह जाना है
मरते वक़्त ही जान पाता है

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