Monday, February 14, 2011

नाटक

हर कोई दलदल में फंसा है
किससे क्या शिकयत करू
जिसे देखो गड्डे में गिरा है
किससे क्या उम्मीद रखूं
सोचती थी मेरे सिवा
हर कोई साफ़ पानी में खड़ा है
अब जाकर जाना
सब मेरे साथ कीचड में धसे हैं
सारी उमीदें दम तोड़ चुकी हैं मेरी
किसी और ने नहीं
अब मैंने ही उनका दामन छोड़ दिया है

जब नहीं है भरोसा खुद का
किसी और को जकड़कर मैं क्या करूँ?

किस पर अपना गुस्सा उड़ेला करूँ ?
हर कोई गुस्से से पगलाया है
किसके कंधे पर सर रखकर रोया करूँ
जिसे देखो उसका दमन दर्द से भरा है

ये कैसी है ज़िन्दगी?
किससे कहूँ मैं आखिर कि मुझे चोट लगी है
थोड़ा मरहम लगा दो
हर किसीने बेशुमार ज़ख्मों का ख़जाना छिपा रखा है

कहीं भनक न लग जाय पड़ोसी को
किसी ने हंसी का मुखौटा चढ़ा रखा है
तो किसी ने काम को हर ज़ख्म की दवा बना रखा है
जिसे देखो वो भाग रहा है अपने आपसे
कोई उड़ाता है धुएं में ज़िन्दगी का ग़म
और किसी दिन वो भी इस धुय में फ़ना हो जाता है
कोई बैठा रहता है मैहखाने में भूलकर सबकुछ
और दम तोड़ देता है वही पर आखिर

भाग तो नहीं पाता है कोई अपने आपसे
पर इस नासमझी में सारी उम्र गुजार देता है
जिसे आ जाय होश इस भागमभाग में
वो ज़िन्दगी के नाटक का दर्शक हो जाता है
जब मैं बन जाती हूँ दर्शक इस नाटक की
अधिकत्तर लोगो को बेचारा पाती हूँ

करुणा उभर आती है हर किसी के लिए ह्र्दय में
थोडा सा प्यार से किसी को गले लगा लेती हूँ
कुछ घड़ियाँ साथ में बैठ जाती हूँ
थोडा सा ग़म बाँट लेती हूँ किसीका
थोड़ी हंसी ले आती हूँ किसी के होठों पर

पर जब बन जाती हूँ उसी नाटक का हिस्सा
तो उन्हीं मजबूर लोगो पर अपनी उमीदों का
भारी भरकम बोझ डाल देती हूँ
सारी हक़ीक़त अनदेखी कर जाती हूँ
बैल से दूध निकालने लगती हूँ
भैस पर सफ़ेद लीपा पोती करके,
उसे गाय बनाने में लग जाती हूँ
हर कोई बदल जाय कुछ और बन जाय
ऐसी अंधाधुंध कोशिश में लग जाती हूँ

नतीजा तो ख़ाक निकलता है कोशिश का
पर मैं जरूर नाटक में शामिल हो जाती हूँ
ओर ज़िन्दगी बोझ लगने लगती है
जिसे ढो रहा है हर कोई
मिल गई है तो कटती जा रही है

जब दर्शक होती हूँ इस नाटक की
तो ज़िन्दगी का रुख ही बदल जाता है
सबकुछ हसीन लगने लगता है
मरना भी, जीना भी
हँसना भी, रोना भी
प्यार करना भी, बिछड़ना भी
ज़िन्दगी वही रहती है जैसी है
तुम नाटक में शामिल हो या दर्शक हो
बस इसी बात से हर बात बदल जाती है

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